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हल्दीघाटी युद्ध: किसकी हुई थी जीत?

हल्दीघाटी युद्ध, 18 जून 1576 को महाराणा प्रताप और अकबर की मुगल सेना के बीच लड़ा गया एक ऐतिहासिक युद्ध था, जो आज भी इतिहासकारों और देशवासियों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। यह युद्ध सिर्फ तलवारों की भिड़ंत नहीं था, बल्कि स्वाभिमान, रणनीति और आत्मबल की असाधारण मिसाल था। परंतु आज भी एक सवाल लोगों के मन में बना रहता है, आखिर हल्दीघाटी युद्ध में जीत किसकी हुई थी?

इस रिपोर्ट में ऐतिहासिक तथ्यों, स्रोत एवं प्रमाणों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि हल्दीघाटी युद्ध में निर्णायक विजय महाराणा प्रताप की हुई थी।

हल्दीघाटी युद्ध की पृष्ठभूमि

हल्दीघाटी युद्ध ऐसे समय लड़ा गया जब महाराणा प्रताप ने नई-नई मेवाड़ की गद्दी संभाली थी। अकबर भी अपने राज्य विस्तार तथा महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न राज्यों के खिलाफ अनेकों प्रकार की कूट रचनाएं कर रहा था। अकबर अपने जिहादी साम्राज्यवादी नीति के एवं व्यापारिक मार्गों की सुगमता  के लिए सभी राजपूत राजाओं को अपने अधीन कर रहा था परंतु मेवाड़ उसके लिए सबसे बड़ी बाधा थी। महाराणा प्रताप के शासन में आने के पूर्व से ही उनके पिता महाराणा उदय सिंह भी अकबर के आगे नहीं झुके थे।

1572 ईस्वी में महाराणा प्रताप के मेवाड़ का राज्य संभालने के उपरांत अकबर ने चार बार अपने दूतों को संधि संदेश लेकर भेजा।

1. अगस्त 1572 ईस्वी में जलाल खान

2. अप्रैल 1573 ईस्वी में कुंवर मानसिंह

3. सितंबर 1573 ईस्वी में आमेर के राजा भगवंतदास

4. दिसंबर 1573 ईस्वी में टोडरमल खत्री

संधि की शर्तों में अकबर के दरबार में हाजरी लगाना, मुगलों को कर देना एवं मेवाड़ की बहन-बेटियों के मुगलों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करने जैसी बातें सम्मिलित थी। यह स्वाभिमानी प्रताप को स्वीकार्य नही थी। इसलिए उन्होंने संधि की बजाय युद्ध चुना। हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर द्वारा अपने सेनापति आमेर के कुंवर मानसिंह को महाराणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा लेकर आने का आदेश दिया गया।

हल्दीघाटी युद्ध का घटनाक्रम

18 जून 1576 के दिन युद्ध लगभग 5 घंटे और तीन चरण में चला –

प्रथम चरण प्रातः 8 बजे के बाद आरम्भ हुआ। प्रथम चरण में हल्दीघाटी के मुहाने से मेवाड़ की सेना आगे बढ़ कर आक्रमण करती है। इस समय हरावल के वाम पार्श्व (बायां भाग) से हकीम खां सूर अपने सैनिकों के साथ आगे बढ़ता है और मुगल सेना के दक्षिण पार्श्व पर टूट पड़ता है। इससे मुगल सेना पहले धक्के में बिखर कर करीब 5 से 7 कोस दूर बनास के दूसरी ओर भाग खड़ी होती है। ऐसी परिस्थिति में दूसरे चरण का युद्ध हल्दी घाटी के मुहाने से करीब सवा कोस दूरी पर होता है। यहां पर मुगल सैनिकों के स्थान पर कछवाहों के राजपूत सैनिक मेवाड़ की सेना के सामने थे। इस दौरान मेवाड़ की सेना के दबाव से मुगलों की राजपूत टुकड़ी करीब पौन कोस पीछे हटती है और बनास के दक्षिणी किनारे तक भागती हैं।

बिखरी हुई मुगल सेना मिहतर खां के नेतृत्व में अंतिम चरण का युद्ध लड़ती है। इस समय मेवाड़ की युद्ध नीति के अनुसार झाला मानसिंह ने प्रताप का रक्षाकवच व तलवार धारण कर ली व प्रताप घायल घोड़े चेतक के साथ युद्ध से निकल गए, ताकि पहाड़ों में से वार करने एवं गोगूँदा को सुरक्षित करने की नीति बनाई जा सकें। झाला बीदा (मान सिंह) वीरगति को प्राप्त होते हैं। अंतिम चरण दोपहर बाद समाप्त हो जाता है। मुगल सेना युद्ध के दौरान तीनों चरण में पीछे हटती रही और न ही प्रताप का पीछा कर पाई।

अकबर का सैनिक एवं युद्ध का आँखों देखा वर्णन करने वाला इतिहासकार अलबदायूंनी अपनी पुस्तक मुन्तखाब उल तवारीख में प्रताप का पीछा न करने के तीन कारण बताता है –

  1. मुगलों को भय था कि प्रताप पहाड़ों में घात लगाए हुए है और उसके अचानक आक्रमण से अत्यधिक सैनिकों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
  2. जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप
  3. मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध करने क्षमता न रहना।

हल्दीघाटी युद्ध के परिणाम

  1. युद्ध का अंत मेवाड़ की युद्धनीति के अनुरुप हुआ। मेवाड़ की सेना के भीषण संघर्ष ने मुगल सेना में डर व्याप्त कर दिया। भयाक्रांत मुगल सेना को कई दिनों तक गोगूँदा में कैद डेरा डाल कर रहना पड़ा।
  2. हल्दीघाटी के परिणाम मुगलों प्रतिकूल रहने पर अकबर ने नाराज होकर मान सिंह व आसफ खान दोनों की ड्योढ़ी कम कर दी।
  3. महाराणा प्रताप ने अपनी विजय के उपलक्ष्य में ब्राह्मणों को भूमिदान दिया और अपनी संप्रभुता को सिद्ध किया। हल्दीघाटी के निकट बलीचा गांव का ताम्रपत्र इसका प्रमाण है।
  4. इस युद्ध के बाद मुगल विरोधी शक्तियों को पुनः खड़ा होने का बल और प्रेरणा मिली।  प्रताप अब स्वतंत्रता, स्वाभिमान और संघर्ष के प्रतीक बन गये।

युद्ध में किसी पक्ष के जीतने के संबंध में तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण है –

  1. युद्ध के माध्यम से बड़ी मात्रा में धन संपदा अथवा भूमि पर अधिकार हो जाए
  2. युद्ध के पश्चात सामने वाले पक्ष के राजा की मृत्यु हो जाए अथवा वह अपना राज्य छोड़कर भाग जाए
  3. पराजित राज्य विजेता राज्य की अधीनता स्वीकार करके कर (tax) देने लग जाए।

उपरोक्त तीनों ही आधारों पर कह सकते हैं, कि युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई।

 प्रताप की विजय को प्रमाणित करने वाले शिलालेख

  1. कृष्ण पक्ष 3, वि.सं. 1634 (1577 ईस्वी) अपने पुरोहित राम को ओड़ा गांव की जागीर दी भगवान काशी को पुण्यार्थ दिया। पंचोली जेता ने ओड़ा से मुगलों का थाना हटाया था। चूंकि यह पुरोहित राम की जागीर का गांव था, इसलिए पुनः उन्हें दिया गया
  2. फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं. 1639 (मार्च, 1583 ईस्वी) को महाराणा प्रताप ने मृगेश्वर गांव (मीरघेसर) प्रदान किया.
  3. ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी, विक्रम संवत 1642 रणछोड़ राय मंदिर प्रशस्ति, सुरखण्ड का खेड़ा, सराड़ा – जिसमें वर्णन है कि महाराणाधिराज प्रतापसिंह ने राठौड़ का राज्य पराजित कर सिसोदियों का राज संवत् 1642 में राज का प्रताप (प्रताव किया। उस समय अकबर के विख्यात सेनापति मानसिंह के साथ युद्ध किया। महाराणा जी इस युद्ध में विजयी हुए। इसी प्रसन्नता में रणछोड़जी का मन्दिर की डोहली का प्रसाद किया। लुबी (भूमि) 4 हल पुजारी के पुत्र को दी। ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी।
  4. जगन्नाथराय मंदिर उदयपुर की प्रशस्ति (वैशाख पूर्णिमा, वि.सं. 1708 तद्अनुसार,13 मई 1652 ईस्वी) –

कृत्वा करे खङ्गलतां स्ववल्लभां, प्रतापसिंहे समुपागते प्रगे । साखण्डिता मानवती द्विषच्चमः, संकोचयन्ती चरणं पराङ्मुखी । श्लोक सं. 41 ।

अर्थ – अपनी प्रियतमा तलवार को हाथ में लेकर प्रतापसिंह के रण भूमि में आ जाने पर  मानसिंह के नेतृत्व वाली सेना अपने पैर को सिकोड़ते हुए भाग खड़ी हुई।

5. वैद्यनाथ मंदिर प्रशस्ति, सीसारमा (वि.सं. 1772 माघ सुदी 12, गुरुवार)-

प्रतापसिंह होऽथ व भूव तस्माद्धनुर्धरो धैर्यधरो धरिण्याम् ।म्लेच्छाधिपात् क्षत्रिकुलेन मुक्तोधर्मोप्यथैनं शरणं जगाम् ।। 3411

प्रतापसिंहेन सुरक्षितोऽसौ पुष्ठः परं तुदिलतामगछत् । अकब्बर म्लेच्छगणाधिपस्य परं मनः शल्यमिवाभवद्यः ।। 35

  (26 जनवरी, 1716 ईस्वी)

अर्थ- उदयसिंह से प्रतापसिंह हुए। यह पृथ्वी पर धनुर्धारी तथा धैर्यवान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। क्षत्रिय कुल के द्वारा म्लेच्छ शासक से धर्म को मुक्त कराया। इस धर्म ने इसकी (प्रताप की) शरण ली ।। 34।।

प्रतापसिंह के द्वारा धर्म को सुरक्षित रखा गया। पुष्ट किया गया, जिससे धर्म सुरक्षित हो गया। म्लेच्छाधिपति अकबर के लिये प्रताप मन में घुसा हुआ कांटा हो गया ।। 35।।

6. रणछोड़ भट्ट प्रणत अमरकाव्यम् (सर्ग- 16, श्लोक सं. 35)-

रणभुवि समुपेतं धन्य सेना समेतं वरागत यवनेशं भूपतिर्मानसिंहम् ।

पवन बल निदानं म्लेच्छनाथैकतानं, दलित समरमानं शौर्यशाणं ततान । 35।।

अर्थ – महाराणा प्रताप ने यवनों के प्रतिनिधि मानसिंह का युद्ध में अभिमान चूर्ण कर वीरता रूपी शान का विस्तार किया।

राज रत्नाकरः महाकवि सदशिव (वि.सं. 17) सप्तम सर्ग श्लोक 42

अरिपट भवनाद् गृहीतवितः पुनखलोकित सम्पराय भूमिः ।

समर विजयी पर्यो महीश, उदयपुरणभिमुखः प्रतापसिंहः ।।42।।

अर्थ – शत्रुओं के तम्बुओं से धन लेकर तथा युद्ध भूमि का पुनः अवलोकन कर वह पृथ्वीपति प्रतापसिंह युद्ध में विजयी होकर उदयपुर की ओर चल पड़ा।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात परिस्थितियाँ

1. हल्दीघाटी युद्ध के अगले दिन 19 जून को मेवाड़ की सेना के अचानक आक्रमण की आशंका से भयभीत मुगल सेना के साथ जब मानसिंह गोगुन्दा पहुंचा तो वह पूर्णतः खाली मिला। मानसिंह को गोगुंदा की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित राणा के महलों में कुछ रक्षक तैनात थे और मंदिरों में पुजारी आदि लोग थे। गांव बिल्कुल खाली था। पूरे गोगुन्दा में मेवाड़ के लोगों की संख्या मात्र बीस थी। वे भी यहां मंदिर की रक्षा के लिए आत्मबलिदान के लिए ठहरे थे। स्वयं युद्ध में मौजूद और आंखों देखा हाल लिखने वाला बदायूंनी लिखता है कि दूसरे दिन हमारी सेना ने वहां से चलकर रणखेत को इस अभिप्राय से देखा कि हर एक ने कैसा काम किया था। फिर दर्रे (घाटी) से हम गोगुन्दे पहुंचे, जहां राणा के महलों के कुछ रक्षक तथा मन्दिर वाले, जिन सबकी संख्या बीस थी, हिन्दुओं की पुरानी रीति के अनुसार अपनी प्रतिष्ठा के निमित्त अपने-अपने स्थानों से निकल आये और सब के सब लड़कर मारे गये। अमीरों (मुगल सैनिक) को यह भय था कि रात के समय कहीं राणा उन पर टूट न पड़े, इसलिये अपनी रक्षार्थ उन्होंने सब मोहल्लों में आड़ खड़ी करा दी और गांव के चारों तरफ खाई खुदवाकर इतनी ऊंची दीवार बनवा दी कि सवार उसको फांद न सके। तत्पश्चात् वे निश्चिंत हुए। फिर वे मरे हुए सैनिकों और घोड़ों की सूची बादशाह के पास भेजने की तैयारी करने लगे, जिस पर सैय्यद अहमद खां बारहा ने कहा- ऐसी फिहरिश्त बनाने से क्या लाभ है? मान लो कि हमारा एक भी घोड़ा व आदमी मारा नहीं गया। इस समय तो खाने के सामान का बन्दोबस्त करना चाहिये। इस पहाड़ी इलाके में न तो अधिक अन्न पैदा होता है और न बंजारे आते हैं और मुगल सेना भूखों मर रही है। इस पर वे खाने के सामान के प्रबंध का विचार करने लगे। फिर वे एक अमीर की अध्यक्षता में सैनिकों को इस अभिप्राय से समय-समय पर भेजने लगे कि वे बाहर जाकर अन्न ले आवें और पहाड़ियों में जहां कहीं लोग एकत्र मिलें उनको कैद कर लें। मुगल सैनिकों को इन हालात में जानवरों का मांस और मेवाड़ के पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत से पैदा होने वाले कच्चे आम खाकर निर्वाह करना पड़ा। साधारण सैनिकों को रोटी न मिलने के कारण इन्हीं आम के फलों पर निर्वाह करना पड़ा, जिससे उनमें से अधिकांश सैनिक बीमार पड़ गये। हल्दीघाटी युद्ध के बाद जब यह दावा किया जाता है कि अकबर की सेना हल्दीघाटी युद्ध में विजय रही तो कथित विजयी सेना की ऐसी दुरावस्था का उदाहरण संभवतः अन्य कहीं से प्राप्त नहीं होता है।

2. महाराणा प्रताप ने अपनी सेना के साथ कोल्यारी गांव में अपना डेरा बनाया तथा घायलों की सेवा सुश्रुषा यहीं की। मेवाड़ी सैनिकों के साथ भील सैनिकों ने चारों ओर पहाड़ी नाकों व रास्तों की नाकाबंदी कर दी। अब उनकी अनुमति के बिना मेवाड़ के पर्वतीय क्षेत्र में किसी का प्रवेश सम्भव नहीं था। दूसरी ओर, भयभीत मुगल सेना इस पर्वतीय क्षेत्र में आने का साहस भी नहीं जुटा पा रही थी। भील सैनिकों की सहायता से मुगल सेना की रसद आपूर्ति भी काट दी गई। जिससे मुगलों का यहां अधिक दिनों तक ठहरना संभव नहीं हो सका।

3. मुगल सेना की वापसी मानसिंह गोगुंदा में चार मास तक अपना सैन्य शिविर लगाये रहा किंतु इस दौरान वह प्रताप के विरूद्ध कुछ न कर सका। मानसिंह की असफलता को देख अकबर नाराज हुआ तथा उसने मानसिंह, आसफ खां और काजी खां को पुनः दरबार में बुला लिया। अकबर मानसिंह की इस असफलता से नाराज था अतः उसने मानसिंह और आसफ खां की ड्योढ़ी बन्द कर दी। शाही सेना डर और थक हार कर अकबर के पास अजमेर चली गयी। महाराणा प्रताप ने तुरंत ही कार्रवाई करते हुए मेवाड़ में नियुक्त बादशाही थानों को हटाकर उनके स्थान पर अपने थाने स्थापित कर दिये और पुनः अपनी तत्कालीन राजधानी कुंभलगढ़ चले गये।

इतिहासकारों की दृष्टि में हल्दीघाटी विजय

1. डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग एक पृ. 442) –

हिन्दुओं के साथ मुसलमानों की लड़ाई का मुसलमानों द्वारा लिखा वर्णन एक पक्षीय होता है, तो भी मुसलमानों के कथन से ही निश्चित है कि शाही सेना की बुरी तरह दुर्दशा हुई और महाराणा प्रतापसिंह के लौटते समय भी उस सेना की स्थिति ऐसी न रही थी कि वह पीछा कर सके और उसका भय तो उस सेना पर यहां तक छा गया था कि वह यही स्वप्न देखती थी कि राणा पहाड़ के उपर रह कर हमारे मारने की घात लगाए बैठा है। दो दिन बाद 21 जून को मुगल सेना के गोगुन्दा पहुंचने पर भी मुगल अफसरों को यही भय बना रहा कि कहीं राणा आकर हमारे पर टूट ना पड़े। इसी से उस गांव के चौतरफा खाई खुदवा कर घोड़ा न फांद सके इतनी ऊंची दीवार बनवाई और गांव के तमाम मोहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी गई। फिर भी शाही सेना गोगुन्दा में कैदी की भांति सीमाबद्ध रही और अन्त तक न जा सकी। जिससे उसकी और भी अधिक दुर्दशा हुई। इन सब बातों पर विचार करते हुए यही मानना पड़ता है कि युद्ध में प्रतापसिंह की ही प्रबलता रही थी।

2. अब्दुल कादिर बदायूंनी (मुन्तखाब उल तवारीख के अनुसार)

इस वक्त हमारी सेना की पूरी तरह हार हो गई। राणा ने घाटी से निकलकर गाजी खां की सेना पर हमला किया और उसकी सेना का संहार कर उसके मध्य तक जा पहुंचा, जिससे सीकरी के शहजादे, शेख मंसूर, गाजी खां आदि भी भाग निकले। हमारी फौज तो पहले हमले में ही भाग निकली। बनास नदी उस पार तक भागती रही। जब युद्ध का समाचार ले कर मैं अकबर के पास जा रहा था तब मार्ग में मुगल विजय के बारे में बताता तो कोई इस पर विश्वास नहीं करता और मेवाड़ की जनता पूरे मार्ग हम पर मिट्टे के ढेले बरसाकर हमारा अपमान करती रही।

3. कर्नल जेम्स टॉड (एनाल्स एण्ड एंटिक्विटज ऑफ़ राजस्थान, पृ.सं. 334) –

18 जून 1576 ई. सन का दिन आर्य कुल की वीरता का एक प्रसिद्ध दिवस है। यह आर्य गौरव का एक पवित्र पर्व हुआ। जितने दिन तक मनुष्य वीरता और महानता की पूजा करेंगे, जितने दिन जगत में राजपूत जाति रहेगी, उतने दिन तक इस उपरोक्त दिन का वृतांत मनुष्यों के इतिहास में प्रकाशमान और रक्त मिश्रित अक्षरों से लिखा रहेगा। यह दिन अनन्त काल तक प्रकाश करेगा। उस दिन उस पुण्य भूमि हल्दीघाटी के शैलगात्र और समस्त गिरि मार्ग मेवाड़ के साहसी पुत्रों के पवित्र शोणित से भीग गये थे। हल्दीघाटी युद्ध राजस्थान की थर्मोपल्ली था।

4. अबुल फ़ज़ल अल्लमी, आगरा (अकबरनामा, अंग्रेजी अनुवाद, जिल्द 3, पृ. 244) –

उसको अपने पूर्वजों की वीरता पर गर्व था। उसका आदर्श था कि बप्पा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकाएगा। स्वदेश प्रेम, स्वतंत्रता और स्वदेशाभिमान उसके मूल मंत्र थे। राणा कीका का कद मझौल, युद्ध की धूप में तप कर उसका रंग तांबे जैसा हो गया था। उसका सिर तरबूज के जैसा बड़ा था, आंखे बड़ी और लाल थी। कंधे बड़े और फैले हुए थे। नाक तीखी और लम्बी थी। घोड़े पर बैठा राणा युद्ध मैदान में मृत्यु के समान दिखाई देता था।

5. डॉ. देवीलाल पालीवाल, उदयपुर (महाराणा प्रताप महान् पृ.सं. 43) –

अपने कई योद्धाओं को खो देने के बावजूद प्रताप और उसकी सेना अपराजित रह कर सुरक्षित पहाड़ों में लौट गई, मानसिंह उसका पीछा नहीं कर सका। वस्तुतः इस युद्ध का अन्त गोगुन्दा में हुआ, जहां मुगल सेना की बड़ी दुर्दशा हुई और उसको विफल होकर लौटना पड़ा। इस भांति जो लड़ाई 18 जून के दिन खमनोर के मैदान में शुरु हुई, उसका अंत सितम्बर में गोगुन्दा में हुआ जब मुगल सेना विफल होकर लौट गई।

6. डॉ. देव कोठारी, उदयपुर (महाराणा प्रताप और उनका युग पृ.सं. 13) –

मेवाड़ के इतिहास, शिलालेख, प्रशस्तियों आदि में हल्दीघाटी युद्ध में प्रताप की विजय होना लिखा है। मुगल इतिहासकारों के विवरण खुशामद भरे हैं। उनके इन विवरणों से अकबर की विजय संदिग्ध ही लगती है। क्योंकि युद्ध के बाद ही शाही सेना का भयभीत रहना, गोगुन्दा में खाइयां खुदवाना, दीवारें व बाड़े बना कर भीतर कैद रहना उन्हें रसद सामग्री उपलब्ध नहीं होना, प्रताप को जीवित या मृत नहीं पकड़ पाना, बदायूंनी द्वारा अकबर की विजय के कथन पर जनता का विश्वास नहीं करना, मेवाड़ पर कब्जा नहीं कर सकना, मुगल सेना की दुर्दशा और मानसिंह व आसफ खां की गलतियों के कारण उनकी ड्योढ़ी बंद कर देना आदि तथ्य अकबर की विजय सिद्ध नहीं करती।

8. डॉ. के. एस. गुप्ता व सज्जनसिंह राणावत, उदयपुर (बहुआयामी राष्ट्र नायक प्रताप) –

हल्दीघाटी युद्ध में मुगलों को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय ने भारतीय क्षितिज में मुगलों के अजेय होने के भ्रम को ध्वस्त कर दिया। इस युद्ध में प्राप्त सफलता ने प्रताप के नेतृत्व के प्रति जन मानस की आस्था को और अधिक प्रगाढ़ कर दिया।

9. प्रो. आर. पी. व्यास, जोधपुर (महाराणा प्रताप पृ. 135)

परिणामतः मुगलों के लिए यह युद्ध असफल ही रहा। युद्ध के बाद न तो राणा का पीछा किया जा सका न उसे बंदी बनाया जा सका और न मेवाड़ को मुगल साम्राज्य का अंग बनाया जा सका। मुगलों ने कुछ समय के लिए जो क्षेत्र अधीन किया, वह निर्जन, उजाड़ और पथरीला था। इससे मुगल तनिक भी लाभान्वित नहीं हुए। हल्दीघाटी के युद्ध और लूट के नाम पर जो मानसिंह को प्राप्त हुआ, वह केवल राणा का प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद था। इस युद्ध में मुगल विफलता के कारण अब यह भ्रम ध्वस्त हो गया कि मुगल सेना अजेय है।

निष्कर्ष – उपरोक्त तथ्यों के आधार पर स्पष्ट है कि हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई थी। यह युद्ध मेवाड़ के साथ-साथ पूरे भारत में मुगल सल्तनत की जड़े कमजोर करने वाला युद्ध था।