हिन्दुत्व, जो न केवल एक धार्मिक परंपरा है बल्कि एक गहन जीवन-दर्शन भी है, आज वैश्विक विमर्श का एक महत्वपूर्ण विषय बन चुका है। यह शब्द, सर्वकालिक एवं सर्वसामान्य होते हुए भी, समयानुकूल संदर्भ के साथ नए अर्थ और व्याख्याएं प्राप्त कर रहा है। बाकी सभ्यता, संस्कृतियों की तुलना में जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि हिन्दू समाज जड़ नहीं है, प्रोग्रेसिव है इसलिए समय काल परिस्थिति के अनुसार फिर चिंतन करता है, आवश्यकता अनुसार परिवर्तन करता है और आगे बढ़ता है। इसीलिए यह दुनियाँ का सबसे प्राचीन धर्म होते हुए भी यह नित्य नवीन बना हुआ है।
- भारतीय समाज की चिरंतन सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधित्व करते हुए हिन्दुत्व केवल पूजा-पद्धति, आचार-विचार और रीति नीति, परंपराओं का नाम नहीं है, बल्कि यह एक जीवन दृष्टि है जो भौतिकता, मानवता, प्रकृति, और परम सत्य के बीच संतुलन की खोज करती है।
- विभिन्न धर्मग्रंथों, शास्त्रों, और समय-समय पर संत-महापुरुषों द्वारा धर्म की जो व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं, उनके अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि हिन्दुत्व के चिंतन में तीन प्रमुख आधारभूत सिद्धांत हैं।
हिन्दु चिंतन के आधारभूत सिद्धांत
1.आध्यात्मिकता
हिन्दू जीवन दर्शन में मनुष्य का मूल स्वरूप आत्मा है, जबकि उसके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शरीर एक साधन मात्र है।
“अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूं) । बृहदारण्यक उपनिषद 1.4.10
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्न..” (यह आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है)। गीता 2.20
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः” । गीता 2.23
“आप्प दीपो भव” (अपने दीपक स्वयं बनो)। बुद्ध वाणी
“तत्त्वमसि श्वेतकेतो” (हे श्वेतकेतु, वह आत्मा तुम स्वयं हो!) छांदोग्य उपनिषद (6.12.3) ……….उक्त संदर्भ इस आध्यात्मिकता के सिद्धांत की गहरी अभिव्यक्ति हैं।
इस दृष्टिकोण से मनुष्य सिर्फ जीवन निर्वाह के तुच्छ उद्देश्य के लिए नहीं जीता बल्कि आत्मा की अमरता से प्रेरित होकर आध्यात्मिक उत्थान पर जोर देता है। सत्य की, आत्मा की और इस जगत की वास्तविकता को जानने के लिए उन्मुख होता है।
2. एकात्मता
हिन्दू जीवन दर्शन में संपूर्ण सृष्टि एक ही चेतना का विस्तार है। व्यक्ति से लेकर समष्टि तक, सब कुछ एक ही परमतत्व की विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति हैं। इस विचार को –
“ईशावास्यम इदं सर्वं” (संपूर्ण जगत ईश्वर से व्याप्त है) इशोपनिषद 1.1
“ममैव अंशों जीव लोके…” (सभी जीव मेरे ही अंश हैं) गीता 15.7
“वासुदेव सर्वं” (सब कुछ ईश्वर है) गीता 7.19
जैसे वैदिक वचनों में स्पष्ट किया गया है। विराटपुरुष और विश्वरूप के सिद्धांत भी इसी एकात्म दृष्टि को प्रकट करते हैं।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। (यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी परम तत्व के सहस्त्रों शीश, आँख, पैर और हाथ हैं..) ऋग्वेद 10.90
इस दृष्टिकोण में प्रकृति के साथ सामंजस्य, मनुष्य का जगत से संबंध, और जीवन के प्रत्येक पहलू में संतुलन स्थापित करने की चेष्टा निहित है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की अवधारणा वर्तमान वैश्विक संघर्ष के दौर में समरसता और सह-अस्तित्व की भावना को बल देती है।
3. समग्रता और सर्व समवेशिता
हिन्दुत्व का दृष्टिकोण जीवन को समग्रता और समावेशिता के साथ देखता है। यह मानता है कि सत्य एक ही है, लेकिन उसे अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखा और व्यक्त किया जा सकता है।
“एकं सद विप्रा बहुदा वदंति” (सत्य एक है, ज्ञानी उसे विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करते हैं) ऋग्वेद 1.164.46
“आनो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः” (सभी दिशाओं से श्रेष्ठ विचार हम तक आएं) ऋग्वेद 1.89.1 …….उक्त वैदिक सूक्त इस समग्रता के सिद्धांत को उजागर करते हैं। यह वैदिक सूत्र स्पष्ट करते हैं कि हिन्दुत्व सांस्कृतिक और वैचारिक विविधता का सम्मान करता है। आधुनिक समाज में जब सांस्कृतिक और वैचारिक टकराव आम हो गए हैं। यह सिद्धांत विश्व को संदेश देता है कि हर संस्कृति और परंपरा में कल्याणकारी तत्व छिपे हैं। यह हमें विश्व बंधुत्व और सह अस्तित्व में रहने का मार्ग देता है। ‘सर्व धर्म समभाव’ हिन्दुत्व का अंतर्निहित गुण है।
ये सिद्धांत न केवल हिन्दू जीवन-दर्शन की गहराई को प्रकट करते हैं, बल्कि समग्र मानवता के कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। अतः हिन्दुत्व को केवल एक धार्मिक पहचान के रूप में सीमित कर देना इसके गहन और व्यापक स्वरूप के साथ न्याय नहीं होगा। यह भारतीय जीवन-दर्शन का वह प्रकाश है, जो मानवता को अपनी मूल प्रकृति, कर्तव्यों, और परम लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है।
कुरीतियां एवं कुप्रथाएं
- 1000-1200 वर्ष से भारत विदेशी आक्रमणों से संघर्षरत रहा है और इस कारण हिन्दू समाज के अंदर कुछ विस्मृति हुई। अंग्रेजी शासन काल में तो जो षड्यंत्रकारी प्रयास हुए उससे हिन्दुत्व का लैंग्वेज ऑफ डिसकोर्स ही बदल गया। भ्रम, अविश्वास, अनास्था का वातावरण बना।
- समय के साथ, हिन्दू समाज में कई ऐसी भ्रांतियां और विकृतियां जुड़ गईं, जो इसके मूल सिद्धांतों और आदर्शों के पूरी तरह खिलाफ हैं। छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव, नारी शोषण, और जाति प्रथा जैसी कुरीतियां हिन्दुत्व के चिंतन के बुनियादी मूल्यों का सीधा उल्लंघन करती हैं।
- इसलिए हमारे यहाँ कोई भेद नहीं, नर में नारायण देखना यहाँ का जीवन दर्शन है। अंग्रेजी व्यवस्था की तरह कोई कोई क्लासेस नहीं। एससी, एसटी, जनरल, ओबीसी हमारी पहचान नहीं। यह शासकीय तंत्र की व्यवस्था हो सकती है पर इसमें कोई भेद या बड़ा छोटा होना, हिन्दुत्व नहीं है।
- इन कुप्रथाओं और सामाजिक बुराइयों का धर्म के साथ कोई संबंध नहीं है। यह केवल सामाजिक विकृतियों का परिणाम हैं, जो समय के साथ परंपराओं पर हावी हो गईं। इन्हें धर्म या हिन्दुत्व का अंग मानना न केवल अनुचित है, बल्कि हिन्दू दर्शन की गहराई और उसकी सार्वभौमिकता के प्रति अज्ञानता दर्शाता है।
हिन्दुत्व का चिंतन किसी भी प्रकार के भेदभाव, असमानता, या शोषण की अनुमति नहीं देता। ये सभी कुरीतियां समाज के विकास में बाधक हैं और पूर्णरूप से सर्वथा त्याज्य हैं। आज जब पूरे विश्व में असंतोष है, परिवार टूट रहे हैं, मजहब आतंक मचा रहे हैं, उपभोक्तावाद और मार्क्सवाद संस्कृतियों को समाप्त करने पर तुले हैं, दुनियाँ ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और मिट्टी, वायु, जल प्रदूषण की समस्या से जूझ रही हैं। ऐसे में हिन्दू जीवन दर्शन में विश्व शांति के साथ सही दिशा में आगे बढ़ने का मार्ग है। हिन्दुत्व के हजारों वर्षों के प्रवाह में काल कोई भी रहा हो, शब्द कोई भी आए हों, भाव और संस्कृति एक रही है। मत कोई भी हो, सिख हो, जैन हो, शैव हो, वैष्णव हो, बौद्ध हो, शाक्त हो, ‘सबका मंगल और सबका सुख’ ही यहाँ का जीवन दर्शन है।