राजस्थान के दक्षिणी भाग के जिलों, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ में मुख्यतः अनुसूचित जनजाति निवास करती हैं। यहाँ अनुसूचित जनजाति की भील,गरसियाँ ,डामोर आदि जातियाँ मुख्य रूप से रहती है। जीवनयापन के लिए मुख्यतः लोग कृषि या वनोपज पर निर्भर है। भारतीय समाज की त्रिस्तरीय व्यवस्था के तहत ये लोग हमेशा से वनों में वास कर रहे हैं। जब अंग्रेज भारत आए तो उन्होंने इन वनवासियों को स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेने से रोकने के लिए इन्हें पिछड़ा बनाने के प्रयास किए। अंग्रेजों ने वर्ष 1891 की जनगणना में देश भर में रहने वाले वनवासियों के लिए ‘tribe’ शब्द दिया । स्वाधीनता के बाद जब संविधान निर्माण हुआ तो इसी ट्राइब शब्द का संदर्भ लेते हुए इन्हे संवैधानिक रूप से ‘अनुसूचित जनजाति ‘/scheduled tribe की श्रेणी में रखा।
आप यदि कभी इस क्षेत्र के लोगों से मिलेंगे तो एक असामान्य बात नोट कर पाएंगे। यहाँ पर प्रत्येक 10 में से 2 या तीन लोगों के नाम कुछ इस प्रकार से मिलेंगे – माइकल डामोर, डेविड भील आदि । यह नाम जनजाति परंपरा के नहीं है , स्पष्ट रूप से यह ईसाई नाम है। लेकिन उपनाम/सरनेम जनजातीय है। जनजाति बहुल क्षेत्र होते हुए भी आपको इन क्षेत्रों में चर्च या फिर प्रार्थना सभाएं दिख जाएगी। यहाँ तक कि क्रिसमस के मेले भी बड़े स्तर पर यहाँ आयोजित होते हैं ।
क्या कहते हैं कन्वर्जन के आँकड़े
हाल में इंडिया टूडे ने एक रिपोर्ट ‘गली गली में गिरजाघरों से मची खलबली‘ के नाम से प्रकाशित की। रिपोर्ट के अनुसार 2011 की जनगणना के समय, राजस्थान की 6.85 करोड़ जनसंख्या में से 0.14 फीसद ईसाई थे। यानी एक लाख से भी कम। बांसवाड़ा समेत राजस्थान के जनजाति बहुल आठ जिलों में जनजातीय आबादी 45 लाख है और अब अकेले 1,532 गांवों वाले बांसवाड़ा जिले में ही ईसाई बन चुके जनजातीय आबादी एक लाख से अधिक बताई जा रही है। इसी तरह उदयपुर और डूंगरपुर जिलों में भी हाल के वर्षों में लगभग 1-2 लाख जनजाति के लोग कन्वर्ट होकर ईसाई बन चुके हैं। उदयपुर जिले के कोटड़ा और फलासिया डूंगरपुर जिले के चौरासी और बिछीवाड़ा बांसवाड़ा जिले के कुशलगढ़,सज्जनगढ़, गढ़ी, बागीदौरा और प्रतापगढ़ जिले के धरियावाद गांवों में कन्वर्जन के सबसे अधिक प्रकरण सामने आए हैं। एक दशक पहले तक इन तीन जिलों में 40-50 चर्च थे, आज इनकी संख्या 250 से भी अधिक हो गई है और कई नए गिरजे बन रहे हैं, इसे लेकर सामाजिक तनाव की भी स्थितियां बन रही है।
कन्वर्जन की मार्केटिंग चैन, नौकरी और धन का लालच
स्थानीय लोगों के अनुसार क्रिश्चियन मिशनरीज यहाँ पर कन्वर्जन के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाती हैं। युवाओं को नौकरी का लालच, गरीब परिवारों को आर्थिक सहायता का लालच व इशू की कृपा से तरह तरह की बीमारियों के ठीक होने का दावा कर ये मिशनरीज इन जनजातीय क्षेत्रों में वर्षों से कन्वर्जन करवा रही हैं। कन्वर्जन के लिए नेटवर्क मार्केटिंग की तरह चैन बनाई जाती है और ये लोग मिशनरीज और कन्वर्ट होने वाले लोगों के बीच बिचोलिये का कार्य करते है। मिशनरीज यहाँ स्वाधीनता के पहले से कन्वर्जन करवा रही है। स्थानीय लोगों और इस क्षेत्र में कार्य करने वाली सामाजिक संस्थाओं के अनुसार ये मिशनरीज लालच देकर जनजाति समाज को अपनी मूल धारणाओं और रीतियों से दूर करती है। युवाओं को नौकरी का लालच देकर कन्वर्ट किया जाता है और फिर उन्हें नौकरी के नाम पर जोखिम भरे कार्यों में या इसी मिशनरी मार्केटिंग की चैन में लगा दिया जाता है। गरीबी और अशिक्षा के कारण भोले भले जनजाति परिवार इनकी लालच भरी बातों में आकर कन्वर्ट हो जाते हैं।
जनजाति समाज में डीलिस्टिंग की मांग
कन्वर्ट हो चुके ये लोग अपने नाम तो बदल लेते है लेकिन उपनाम नहीं बदलते। इसके पीछे क्या कारण है ? इसके पीछे का कारण है आरक्षण का लाभ। जनजाति समुदाय भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। इन विविध परंपराओं, मान्यताओं और इनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए भारत का संविधान अनुसूचित जनजाति को विशेष आरक्षण प्रदान करता है। लेकिन जो लोग ईसाइयत अपना चुके है वे स्वतः ही जनजाति मान्यताओं और परंपराओं से दूरी बना चुके हैं अतः वे इन मान्यताओं का संरक्षण भी नहीं करेंगे। तो उन्हें आरक्षण का लाभ क्यों मिले ? इसी के चलते राजस्थान सहित कई राज्यों में, जहां जनजाति निवास करती है वहाँ डीलिस्टिंग की मांग चल रही है। डीलिस्टिंग अर्थात, जो लोग किसी भी प्रकार से कन्वर्ट हो चुके हैं उन्हे जनजाति आरक्षण के लाभ से बाहर किया जाए। जनजाति समाज का कहना है कि डीलिस्टिंग नहीं होने के कारण आरक्षण का अधिकार जो वास्तव में वनवासियों को मिलन चाहिए, जो इन परंपराओं और मान्यताओं को सहेज कर रखते हैं.यह अधिकार कन्वर्ट हो चुके लोगों में बंट जाता है। इससे एक तरफ कन्वर्ट होकर ईसाई या अन्य मत अपना चुके लोग दोहरा लाभ उठा रहे है वही जनजाति समाज, जो वास्तव में इसका अधिकारी है वह इससे वंचित रह जाता है। डीलिस्टिंग की मांग करने वाला जनजाति समाज का नारा है कि ‘जो भोलेनाथ का नहीं वो मेरी जात का नहीं’। मतलब जो हिन्दू धर्म छोड़ कर कन्वर्ट हो चुका हैं ,उन्हे अनुसूचित जनजाति के दायरे में आने का कोई अधिकार नहीं है।
references –
वर्तमान परिदृश्य – डीलिस्टिंग की अनिवार्यता
क्रिसमस आयोजन – https://www.bhaskar.com/epaper/detail-page/banswara-bhaskar/528/2023-12-26?pid=3