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अरावली पर्वतमाला: पर्यावरणीय संरक्षण और नीतिगत चुनौतियाँ

अरावली पर्वतमाला: पर्यावरणीय संरक्षण और नीतिगत चुनौतियाँ – एक विस्तृत रिपोर्ट

अरावली पर्वतमाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र है, जो जैव विविधता संरक्षण, भू-जल पुनर्भरण तथा मरुस्थलीकरण की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने में निर्णायक भूमिका निभाती है। इसी पारिस्थितिक संवेदनशीलता के कारण अरावली क्षेत्र में खनन और निर्माण गतिविधियों पर पिछले कई दशकों से विभिन्न स्तरों पर नियामक नियंत्रण और न्यायिक प्रतिबंध लागू रहे हैं।

साथ ही, यह भी तथ्य है कि अरावली पर्वतमाला महत्वपूर्ण खनिज एवं निर्माण संसाधनों का एक प्रमुख स्रोत है। इस कारण यहाँ होने वाली खनन गतिविधियाँ नीति-निर्माण की दृष्टि से विकास की आवश्यकताओं और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच संतुलन की जटिल चुनौती प्रस्तुत करती हैं। वर्तमान वैश्विक एवं राष्ट्रीय पर्यावरणीय संकट के संदर्भ में, इस संतुलन को साधते हुए सतत विकास को सुनिश्चित करना अनिवार्य हो गया है।

इसी पृष्ठभूमि में यह रिपोर्ट माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों, सरकारी अभिलेखों तथा प्रामाणिक वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर अरावली से संबंधित प्रमुख तथ्यों और नीतिगत प्रश्नों को प्रस्तुत करती है।

1. अरावली पर्वतमाला: परिचय और भौगोलिक महत्व

अरावली विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जिसकी आयु 2.5 अरब वर्ष से अधिक है। इसका विस्तार करीब 700 किमी लंबाई तक फैला है, जो दिल्ली से गुजरात तक 4 राज्यों में विस्तारित है। क्षेत्रफल लगभग 1.44 लाख वर्ग किमी है। यह दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के करीब 39  जिले में फैली है, जिसमें राजस्थान का सबसे बड़ा हिस्सा (लगभग 80%) है।

पारिस्थितिक भूमिका:

  • अरावली थार मरुस्थल के पूर्वी विस्तार को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है, जो दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता और जलवायु को नियंत्रित करती है।
  • यह भूजल पुनर्भरण का प्रमुख स्रोत है, जो उत्तरी भारत की जल सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
  • जैव विविधता: बघेरे (leopard), पक्षी और दुर्लभ पौधों का आवास। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के अनुसार इस पर्वतमाला में 12 प्रमुख ब्रेक/गैप्स हैं, जिनसे रेत का प्रसार हो रहा है। सांभर गैप लगभग 944 वर्ग किमी है, जहां 64% क्षेत्र रेत से प्रभावित है। कुल प्रभावित क्षेत्र 5,680 वर्ग किमी से अधिक है, जो मरुस्थलीकरण को तेज करता है। अरावली की क्षति से दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण 20-30% बढ़ सकता है, और जल संकट गहरा सकता है।

2. कानूनी और विनियामक घटनाक्रम: समयरेखा

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (वर्ष 2000 से पहले):

  • 1968: लैंडफॉर्म वर्गीकरण की स्थापना।
  • 1985: एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ प्रकरण के माध्यम से हरियाणा में अरावली क्षेत्र में खनन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का मुद्दा पहली बार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रमुख रूप से आया।
  • 1995: टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ मामले के तहत वन भूमि की व्यापक व्याख्या की गई और वन क्षेत्रों में खनन एवं अन्य गतिविधियों पर सख़्त न्यायिक निगरानी स्थापित हुई।

प्रारंभिक प्रतिबंध (वर्ष 2002–2018):

  • 2002: सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हरियाणा के अरावली क्षेत्र में खनन गतिविधियों पर व्यापक प्रतिबंध लगाए गए।
  • 2004: राजस्थान के कुछ अरावली जिलों में भी पर्यावरणीय कारणों से खनन पर प्रतिबंध लगाए गए, हालाँकि यह प्रतिबंध पूर्ण और समान नहीं थे।
  • 2006: राजस्थान ने 100 मीटर लोकल रिलीफ पर आधारित परिभाषा अपनाई। राजस्थान सरकार द्वारा एक परिपत्र जारी कर “लोकल रिलीफ (local relief) के आधार पर 100 मीटर ऊँचाई” को पहाड़ी/अरावली क्षेत्र की पहचान का प्रशासनिक मानदंड अपनाया गया। यह परिभाषा मुख्यतः खनन विनियमन और प्रशासनिक स्पष्टता के उद्देश्य से लागू की गई थी, न कि पारिस्थितिक पहचान तय करने के लिए।

हालिया निर्णायक कार्रवाई (वर्ष 2024–2025):

  • 2023–2024:
    सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि अरावली जैसी विस्तृत और बहु-राज्यीय पर्वतमाला के लिए एक समान वैज्ञानिक मानदंड और मानचित्रण पद्धति की आवश्यकता है, जिससे नियम स्पष्ट एवं पारदर्शी हों।
  • मई 2024: सुप्रीम कोर्ट ने अरावली की एकसमान वैज्ञानिक परिभाषा के लिए पर्यावरण मंत्रालय (MoEFCC) के तहत विशेषज्ञ समिति गठित की।
  • 7 मार्च 2024: सेंट्रल एम्पावर्ड कमिटी (CEC) ने रिपोर्ट दी, जिसमें 15 सिफारिशें (मानचित्रण और प्रतिबंध)
  • नवंबर 20, 2025: सुप्रीम कोर्ट ने 100 मीटर लोकल रिलीफ की परिभाषा स्वीकार की, लेकिन MPSM (मैनेजमेंट प्लान फॉर सस्टेनेबल माइनिंग) तैयार होने तक नए पट्टों पर रोक लगाई। यह निर्णय विवादास्पद रहा, क्योंकि अधिकांश लोगों का मानना था – कि इससे 90% क्षेत्र खनन के लिए खुल सकता था।
  • 24 दिसंबर 2025: केंद्र ने दिल्ली-गुजरात तक नए खनन आवेदनों पर फ्रीज लगाया।
  • 29 दिसंबर 2025: सुप्रीम कोर्ट ने अपना नवंबर 20 का निर्णय स्पष्टीकरण और विशेषज्ञ समीक्षा के लिए स्थगित कर दिया। अंतिम निर्णय अब लंबित है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने इस निर्णय का स्वागत किया है।

नीतिगत दृष्टि: असंगत परिभाषाओं ने अवैध खनन को बढ़ावा दिया; एकसमान नीति से प्रवर्तन मजबूत होने की संभावना होती है।

3. वैज्ञानिक परिभाषा और विनियामक ढांचा

  • अरावली हिल (पहाड़ी): आधार से 100 मीटर या अधिक ऊंचाई वाली भूमि (ढलान और आधार सहित)
  • अरावली रेंज (पर्वतमाला): 500 मीटर के भीतर दो या अधिक पहाड़ियाँ
  • MPSM (Management Plan for Sustainable Mining) और No-Go जोन: ICFRE (Indian Council of Forestry Research and Education) द्वारा निर्धारित टाइगर रिजर्व, Eco Sensitive Zone (ESZ), वन संरक्षित भूमि, और वेटलैंड्स (आर्द्रभूमि) आदि में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध।
  • लेकिन आलोचक कहते हैं कि यह परिभाषा 90% क्षेत्र को माइनिंग के लिए खोल सकता है, हालांकि सरकार दावा करती है कि केवल 0.19% क्षेत्र माइनिंग के लिए उपलब्ध है। स्टे के बाद, यह लंबित है।

4. मरुस्थलीकरण का खतरा और पारिस्थितिक संकट

अरावली में प्राकृतिक रूप से 12 प्रमुख गैप्स (दरारें) विकसित हो गए हैं, जो थार मरुस्थल की रेत को हरियाणा और दिल्ली की ओर बढ़ने का रास्ता दे रहे हैं। सरकारी अभिलेखों, न्यायिक टिप्पणियों तथा पर्यावरणीय रिपोर्टों में यह भी उल्लेख मिलता है कि अवैध खनन गतिविधियों के कारण अरावली क्षेत्र में कई हिलॉक्स (छोटी पहाड़ियाँ) आंशिक या पूर्ण रूप से नष्ट हुई हैं। कुछ अध्ययनों में लगभग 30 से अधिक हिलॉक्स के गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त या लुप्त होने की बात कही गई है, जिसे अवैध खनन के दीर्घकालिक प्रभाव के रूप में देखा जाता है।

5. मिथक बनाम वास्तविकता (Myth vs Fact)

मिथक (Myth)वास्तविकता (Fact)
सुप्रीम कोर्ट ने नया खनन खोल दिया है।गलत; नवंबर 2025 में MPSM तक नए पट्टों पर रोक लगाई गई, और 29 दिसंबर 2025 को निर्णय स्थगित। केवल मौजूदा वैध माइन जारी, वो भी सख्त अनुपालन के साथ।
100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों में अब खनन हो सकेगा।आंशिक गलत; इन पर प्रतिबंध जारी, लेकिन परिभाषा से 90% क्षेत्र खनन के लिए खुल सकता था (अब स्टे)। ढलानों पर प्रतिबंध।
नई परिभाषा से अरावली का 90% हिस्सा खत्म हो जाएगा।विवादास्पद; सरकार दावा करती है कि 98.81% प्रोटेक्टेड रहेगा, केवल 0.19% माइनिंग के लिए। लेकिन आलोचकों का कहना हैं कि यह माइनिंग को बढ़ावा देगा। स्टे के बाद अब नए नियमन से स्पष्टता आएगी।

6. राजस्थान में पत्थर की आवश्यकता, आपूर्ति, अवैध खनन की हानि और नए नियमों का प्रभाव

  • कुल पत्थर की आवश्यकता: राजस्थान भारत का प्रमुख स्टोन प्रोड्यूसर है (ग्रेनाइट, मार्बल, सैंडस्टोन में 50%+ हिस्सा)। वार्षिक डिमांड लगभग 100 मिलियन टन (निर्माण, निर्यात और इंफ्रास्ट्रक्चर से), जो 2025 में 120 मिलियन टन तक पहुंच सकती है। अरावली से आपूर्ति: लगभग 40-50% (मुख्य रूप से अलवर, भरतपुर, जयपुर जिलों से), जहां 1,200+ वैध लीज सक्रिय हैं।
  • अवैध खनन से राजस्व हानि: वर्ष 2020 से 20,000+ केस, सरकार ने 245 करोड़ पेनाल्टी रिकवर की, लेकिन अनुमानित वार्षिक हानि 500-1,000 करोड़ (टैक्स, रॉयल्टी और पर्यावरण क्षति से)। अवैध खनन से 31 हिलॉक्स गायब, जो आर्थिक और पारिस्थितिक हानि बढ़ाता है।
  • नए नियमों का प्रभाव: 100 मीटर डेफिनिशन से अवैध खनन पर रोक लग सकती है (एकसमान प्रवर्तन से), लेकिन क्रिटिक्स कहते हैं कि यह वैध माइनिंग को बढ़ावा देगा। स्टे के बाद, MPSM से सस्टेनेबल प्लानिंग संभव। राजस्व लाभ: यदि सस्टेनेबल माइनिंग लागू, वार्षिक 200-500 करोड़ अतिरिक्त राजस्व (वैध लीज से)
  • पूर्ण प्रतिबंध की संभावना: यह प्रायोगिक रूप से संभव नहीं; मिनरल्स (क्रिटिकल, स्ट्रेटेजिक) की जरूरत से अवैध माइनिंग बढ़ेगी, जो माफिया को बढ़ावा देगा। आर्थिक प्रभाव: राजस्थान की GDP में माइनिंग 5-7% योगदान, लाखों रोजगार प्रभावित। लेकिन पर्यावरण क्षति से लंबी अवधि में हानि अधिक।
  • विकल्प:
    • सस्टेनेबल माइनिंग: MPSM के तहत जोनिंग, रिस्टोरेशन और टेक्नोलॉजी (जैसे जीपीएस ट्रैकिंग)।
    • वैकल्पिक स्रोत: अन्य राज्यों (गुजरात, आंध्र) से आयात या रिसाइकल्ड मटेरियल (कंस्ट्रक्शन वेस्ट से)
    • स्थानीय सामुदायिक निगरानी: स्थानीय समुदायों को शामिल कर ड्रोन सर्विलांस।

7. संरक्षण पहल

  • माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने 20 नवंबर 2025 के आदेश को निरस्त कर दिया है।
  • इससे पूर्व पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने 24 दिसंबर 2025 को जारी आधिकारिक निर्देश में स्पष्ट किया है कि “खनन के लिए कोई नई पट्टियाँ तब तक नहीं दी जाएँगी, जब तक संपूर्ण अरावली क्षेत्र के लिए Management Plan for Sustainable Mining (MPSM) पूरे वैज्ञानिक मूल्यांकन के साथ तैयार और लागू नहीं हो जाती।”
  • सरकार ने यह भी निर्देश दिया है कि भारतीय वानिकी अनुसंधान परिषद (ICFRE) को पूरे अरावली क्षेत्र के लिए एक व्यापक, विज्ञान-आधारित “सतत खनन प्रबंधन योजना (MPSM)” तैयार करनी है। इस योजना में निम्न कार्य होंगे:
  • संचित/संचयी पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन
  • पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील और संरक्षण-महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान
  • भूमिगत जल भंडार, जैव विविधता, टिकाऊ उपयोग और पुनर्स्थापन उपायों की रूपरेखा
  • सार्वजनिक परामर्श के लिए योजना को आम जनता के समक्ष रखना
  • गैर-संरक्षित क्षेत्रों में संभावित खनन की सैद्धांतिक रूपरेखा, पर केवल तभी अनुमति देना जब MPSM वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट करता है कि वह व्यवहार्य और सुरक्षित है।
  • अरावली ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट: यह परियोजना 2023 में केंद्र सरकार द्वारा घोषित की गई, जिसका उद्देश्य अरावली पर्वतमाला के साथ-साथ लगभग 700 किमी लंबी हरित पट्टी विकसित करना है। परियोजना के अंतर्गत वृक्षारोपण, जल निकायों का पुनरुद्धार तथा मृदा एवं जल संरक्षण उपाय शामिल हैं, ताकि मरुस्थलीकरण को रोका जा सके और पारिस्थितिकी को सुदृढ़ किया जा सके।
  • हरियाणा में क्रियान्वयन: 2023–24 के दौरान हरियाणा में इस परियोजना के अंतर्गत विभिन्न चरणों में हज़ारों हेक्टेयर क्षेत्र में पुनर्स्थापन (restoration) गतिविधियाँ प्रारंभ की गई हैं।
  • पारदर्शिता के लिए MPSM का ड्राफ्ट जनता से परामर्श। पर्यावरणविद दृष्टि: यह जलवायु अनुकूलन के लिए जरूरी; नीति दृष्टि: अंतरराष्ट्रीय फंडिंग (जैसे ग्रीन क्लाइमेट फंड) से विस्तार।

8. निष्कर्ष: अरावली पर्वतमाला का संरक्षण को विकास की आवश्यकताओं से ऊपर प्राथमिकता प्राप्त होनी चाहिए। अरावली का क्षरण केवल स्थानीय नहीं बल्कि क्षेत्रीय और दीर्घकालिक पर्यावरणीय संकट को जन्म दे सकता है।

इसलिए वैज्ञानिक रूप से परिभाषित और सख़्ती से लागू की गई सस्टेनेबल नीतियों के माध्यम से विकास और संरक्षण के बीच संतुलन की आवश्यकता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय से यह अपेक्षा की जाती है कि केंद्र की निगरानी में जिला स्तर पर सार्वजनिक भागीदारी से एक मजबूत सस्टेनेबल माइनिंग प्लान (MPSM) बनाकर एक प्रभावी, पारदर्शी और सख़्ती से प्रवर्तित ढांचे को विकसित करे जिससे विकास और पर्यावरण संरक्षण में समन्वय और संतुलन स्थापित हो।