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सीमाओं से लेकर बाज़ार तक: चीन के प्रॉपगेंडा और आर्थिक जाल में फंसी भारतीय चेतना

हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम क्षेत्र में हुई आतंकवादी घटना के विरुद्ध भारतीय सेना का ऑपरेशन सिंदूर, केवल एक सैन्य प्रतिक्रिया भर नहीं है—यह भारत की सामरिक सजगता और राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति उसकी अदम्य प्रतिबद्धता का सशक्त प्रतीक है। यह कार्रवाई उन पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों के विरुद्ध थी, जिन्होंने हमारे देश पर एक कायराना लेकिन सुनियोजित और घातक हमला किया। इस अल्पकालिक संघर्ष में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के हर मंसूबे को विफल कर दिया और अपनी तकनीकी और युद्ध कौशल का परचम दुनियाँ भर में फहरा दिया।

किन्तु इस टकराव में जो बात विशेष रूप से चिंताजनक रही, वह थी पाकिस्तान द्वारा चीन-निर्मित ड्रोन और सैन्य उपकरणों का बड़े पैमाने पर प्रयोग। यह इस बात का प्रमाण है कि भारत को केवल सीमापार आतंकवाद से नहीं, बल्कि पाक-चीन सामरिक गठजोड़ से भी जूझना होगा—एक ऐसा गठजोड़, जिसमें आर्थिक, तकनीकी और कूटनीतिक सभी पक्ष सम्मिलित हैं।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान चीन ने न तो पाकिस्तान की आतंकवाद-समर्थक भूमिका की आलोचना की, और न ही भारत के आत्मरक्षात्मक कदमों का समर्थन किया। इसके विपरीत, उसने पाकिस्तान के साथ खड़े रहने की प्रतिबद्धता दोहराई। यह चीन की विख्यात दोहरी नीति  का परिचायक है—जहाँ एक ओर वह भारत में व्यापार के माध्यम से अपनी उपस्थिति सुदृढ़ करता है, वहीं दूसरी ओर भारत-विरोधी ताक़तों को रणनीतिक संरक्षण व संसाधन प्रदान करता है।

चीन का यह रुख कोई नवीन नहीं है। वर्षों से वह पाकिस्तान को न केवल हथियारों की आपूर्ति करता आया है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों—विशेषकर संयुक्त राष्ट्र—पर उसे आतंकवाद के आरोपों से बचाने के लिए और भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट मिलने से अपना वीटो-शक्ति का प्रयोग करता रहा है।

इसी बौखलाहट का एक और संकेत 14 मई को तब मिला जब चीन ने भारत के अरुणाचल प्रदेश के कई स्थानों के नाम बदलकर उन्हें ‘दक्षिण तिब्बत’ का हिस्सा घोषित कर दिया—यह भारत की संप्रभुता के प्रति सीधा और जानबूझकर किया गया अपमान है। पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य मोर्चे पर मुंह की खाने और वैश्विक स्तर पर भारतीय साख बढ़ने से चीन का कूटनीतिक संतुलन गड़बड़ा गया है—जिसका परिणाम वह अब इस प्रकार की हरकतें वैचारिक युद्ध के रूप में प्रकट कर रहा है।

लेकिन इस समूचे संदर्भ में जो सबसे अधिक आत्मनिरीक्षण योग्य बात है, वह यह कि भारतीय नागरिक स्वयं अनजाने में इस शत्रु की आर्थिक शक्ति को मज़बूत कर रहे हैं

एम जी मोटर्स  इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है—एक चीनी स्वामित्व वाली कंपनी जो भारत में धड़ल्ले से वाहन बेच रही है। गत वित्त वर्ष में इस कंपनी ने भारत में 50,000 से अधिक वाहन बेचकर ₹7000 करोड़ से अधिक का कारोबार किया। यह कोई अपवाद नहीं है—चीन से आयातित कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक्स, खिलौने और सजावटी वस्तुएँ आज भारतीय बाज़ार में हर जगह दिखाई देती हैं।

ऐसे में यह सवाल अनिवार्य रूप से उठता है:

क्या हम अपनी ही क्रयशक्ति से अपने शत्रु को संसाधन उपलब्ध नहीं करा रहे? क्या यह विडंबना नहीं है कि एक ओर हमारी सेना सीमाओं पर बलिदान दे रही है, और दूसरी ओर हम अपने निजी लोभ, सुविधा या दिखावे के लिए उसी देश को आर्थिक बल दे रहे हैं जो हमारे सैन्य बलों को मारने वालों को हथियार दे रहा है?

सरकारों के पास कूटनीतिक दायित्व, अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौते और रणनीतिक सीमाएँ हो सकती हैं। लेकिन आम जनता की ऐसी कौन-सी मजबूरी है? क्या भारतीय उपभोक्ता स्वतंत्र नहीं है कि वह राष्ट्रहित को प्राथमिकता दे? चीन को आर्थिक उत्तर देने के लिए कोई युद्धघोष की आवश्यकता नहीं—केवल चेतना, विवेक और उत्तरदायित्व की ज़रूरत है।

“वोकल फॉर लोकल” एक राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि समय की माँग है। आत्मनिर्भर भारत केवल नीतियों से नहीं, बल्कि नागरिकों की सहभागिता से साकार होगा।

यदि सीमाओं की रक्षा सैनिक कर रहे हैं, तो बाज़ार की रक्षा नागरिकों का नैतिक कर्तव्य है। यही वह क्षण है जब राष्ट्र की चेतना को जगना चाहिए।

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