समाज एवं संस्कृति अध्ययन केंद्र राजस्थान

संवर्धिनी- महिला विषयक भारतीय दृष्टिकोण

प्रकाशक – विचार विनिमय प्रकाशन, वर्ष – 2016

यह पुस्तक महिला विषयक भारतीय दृष्टिकोण विषय पर आयोजित गोष्ठी के भाषणों का संकलन है। महिलाओं के संदर्भ में अनेक घटनाएं समाज में घटती हैं। लेकिन दुर्दैव से महिला उत्पीड़न और प्रताड़ना की चर्चा ही मीडिया में अधिक होती है। इसको लेकर विचारक लेख भी लिखते हैं। कुछ विशिष्ट विचारधारा के लोग ऐसी घटनाओं की आड़ में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू धर्म, परंपरा, हिन्दू जीवन पद्धति पर आघात करने से नहीं चूकते। प्रताड़ना या उत्पीड़न की घटना गलत है, निंद्य है, लेकिन उसका कारण हिन्दू संस्कृति न होकर लोगों का हिन्दू संस्कृति से विमुख होना है। अतः भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारी चिंतन को समझने के लिए यह पुस्तक उपयोगी है।

इसी पुस्तक से –

…………यह भारतीय चिंतन ही है, जहां हर स्त्री को बहन या माँ की दृष्टि से देखा जाता है। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक भाषण में कहा कि जब मैं यहाँ(विदेश) की महिलाओं को माँ कहता हूं, तो वे नाराज हो जाती हैं, उन्हें लगता है मैं उनकी आयु की ओर संकेत कर रहा हूं। जबकि भारत में तो छोटी बच्ची भी अम्बा है। हमारे संस्कारों में तो हर स्त्री माँ है। सागरिका घोष ने ट्वीट किया कि भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को माताएं बहनें कह कर सम्बंधों में क्यों बांध देते हैं, स्वतंत्र क्यों नहीं रहने देते? यह पश्चिमी दृष्टि है। बेट्टी फ्रीडन ने यह काम अमेरिका में शुरू किया, स्त्री मुक्ति का आंदोलन चलाया। फिर 25 वर्षों के अपने अनुभवों के बाद द सेकेंड स्टेज पुस्तक लिखी, जिसमें लिखा, हमने स्त्री को मुक्त करने के आंदोलन में स्त्री को किससे मुक्त करना इस बात को समझा ही नहीं, इस कारण हमने परिवारों को समाप्त कर दिया। परिवार समाप्त होने से संस्कार समाप्त हो गए। संस्कार समाप्त होने से स्त्री परिवार और पुरुष से तो मुक्त हो गई, लेकिन अकेली हो गई।

डेविड ब्लैंकेनहॉर्न ने 1998 में छपी अपनी पुस्तक फादरलेस अमेरिका में लिखा है, अमेरिका में 78% परिवार ऐसे हैं, जो केवल महिला द्वारा चलाए जा रहे हैं। 15 वर्ष से ऊपर के अमेरिका वासियों में से 46% ऐसे हैं, जिनके या तो पिता नहीं हैं या उन्हें पता नहीं है कि उनके पिता कौन हैं? भारतीय चिंतन पूरकता को महत्व देता है। स्त्री पुरुष के साथ ही नहीं, सम्पूर्ण प्रकृति के साथ भी। इसीलिए हमारे यहाँ परम्परा बनी, पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी कुत्ते को। कौए, चिड़िया, चींटी सबकी व्यवस्था की गई है।

भारतीय जीवन दृष्टि मानव जीवन के बारे में है। मानव यानि मनुष्य, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों समाहित हैं। हमारे शास्त्रों में जो भी कहा गया है, वह मनुष्य मात्र के लिए कहा गया है, स्त्री और पुरुष को अलग देखना भारत की दृष्टि नहीं है। हमारे यहाँ शिव और शक्ति एक हैं, दोनों मिलकर अर्द्धनारीश्वर बनते हैं। हमें महिला के बारे में भारतीय चिंतन पर विचार करना पड़ रहा है क्योंकि हम भारतीय चिंतन से विमुख हो गए हैं। इसका कारण हमारी शिक्षा है, जिसका सेंटर ऑफ ग्रेविटी यूरोप की ओर शिफ्ट हो गया है, हमें इसे पुनः भारत में लाना है। भारत विविधता में समानता नहीं ढूंढता, एकत्व ढूंढता है। उस एकात्मता को जीवन दर्शन के रूप में स्थापित करता है। इसीलिए यहाँ चंदा मामा है, गाय माता है और बिल्ली मौसी है। जड़ से, चेतन से, अचेतन से, प्रत्येक से सम्बंध जोड़ने का एक अत्यंत सहज, सुंदर जीवन दर्शन इस देश में केवल विकसित ही नहीं, बल्कि आचरित हुआ है। इसीलिए आज निर्जीव का भी गलती से पैरों का स्पर्श हो जाए, तो हम क्षमा याचना करते हैं। क्योंकि हम मानते हैं कण कण में ईश्वर है। भारत में विविधता का उत्सव मनाया जाता है। हम किसी को अपने जैसा बनाने का प्रयास नहीं करते। यहाँ वाद होता है विवाद नहीं। हम यह मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की मति अलग अलग तरह से काम करती है। इसलिए हम सबको अद्वितीय मानते हैं। हमारे लिए प्रत्येक व्यक्ति दिव्य है। इसीलिए अटपटा लगता है, जब कोई महिला कहती है “मैं सामान्य गृहिणी हूं।” गृहिणी गृहलक्ष्मी है, वह सामान्य कैसे हो सकती है? हम बाहर जाकर कुछ काम नहीं करते, तो हम सामान्य हैं। ऐसा विचार पश्चिमी विचार के कारण आया। ईश्वर ने हमें अद्वितीय बनाया है, अपनी उंगलियों के निशान देखिए वे यूनीक हैं। ईश्वर ने स्त्री को मातृत्व देकर और भी विशिष्ट बनाया है।

भारतीय जीवन दृष्टि सबको समान अवसर देने की है। इसीलिए हमारे यहाँ महिलाएं ऋषि भी हुई हैं और युद्ध कौशल में कुशल भी। भारत की आर्थिक ताकत भी परिवार हैं। 2008 में पूरे विश्व में मंदी आयी, लेकिन भारत की अर्थशक्ति को गृहलक्ष्मियों ने डाउन नहीं होने दिया। भारतीय जीवन दृष्टि में स्त्री पुरुष की रक्षा करती है, रक्षाबंधन इसका उदाहरण है। रक्षासूत्र जिसको बांधा जाता है, वह उसकी रक्षा के लिए बांधा जाता है। निर्भया केस के बाद भारत में ऐसा वातावरण बनाया गया जैसे भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है। लेकिन सर्वाधिक पर कैपिटा इन्कम वाले देश स्वीडन में एक लाख की जनसंख्या पर 65 बलात्कार के केस होते हैं। यह दुनिया में दूसरे नं पर है। पहले नं पर आस्ट्रेलिया है, जहॉं एक लाख जनसंख्या पर 74 केस होते हैं। अमेरिका में यह नं 27 है और भारत में 1.8। क्यों? क्योंकि हमारे यहाँ परिवार अभी तक बचे हुए हैं। विमर्श चलाया जाता है कि ऐसा वेशभूषा के कारण होता है। लेकिन माता अमृतानंदमयी कहती हैं, भारत में तो आदिकाल से लेकर मध्यकाल तक अनेक समुदाय ऐसे रहे हैं, जहां स्त्रियां उत्तरीय पहनती ही नहीं थीं, लेकिन कोई दुर्घटना नहीं होती थी, क्योंकि पुरुषों को संस्कारित किया जाता था। समाज धर्म में संस्कारित था।

पुस्तक में कुल 12 अध्याय है-

  • भारतीय जीवन दृष्टि में महिला : श्री मुकुल कानितकर
  • स्त्री तेज की अक्षुण्ण परंपरा : सुनीला सोवनी जी
  • महिला आंदोलन में भारत का प्रतिसाद : नयना सहस्त्रबुद्धे
  • हिन्दू परिवार व्यवस्था : अलका ताई
  • विकास का भारतीय प्रारूप व महिला : डॉ. ज्योति किरण
  • परिवार व्यवस्था और नव उदारवाद की चुनौती : प्रो. राकेश सिन्हा
  • मीडिया और महिलाएं : मृणालिनी नानिवडेकर
  • उपेक्षित समाज और उपेक्षित समाज की महिला : डॉ. सुवर्णा रावल
  • महिलाओं के सम्बंध में नए कानून, राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियां : मोनिका अरोड़ा
  • जिज्ञासा समाधान : डॉ. मोहनराव भागवत
  • उपसंहार : डॉ. मनमोहन वैद्य
  • समापन : डॉ. मोहनराव भागवत