दिनांक: 20-11-2025

प्रथम सत्र
समाज एवं संस्कृति अध्ययन केंद्र, राजस्थान तथा केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर के संयुक्त तत्वावधान में “महिला विषयक भारतीय दृष्टिकोण” के संदर्भ में ‘संवर्धिनी’ पुस्तक पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। कार्यक्रम का उद्देश्य स्त्री-विमर्श के भारतीय सिद्धांतों, सांस्कृतिक दृष्टिकोण और समकालीन परिप्रेक्ष्यों को समझना तथा इस विषय पर गहन संवाद स्थापित करना था।
कार्यक्रम का प्रारंभ विश्व संवाद केंद्र, जयपुर की निदेशक डॉ. शुचि चौहान के संबोधन से हुआ। उन्होंने ‘संवर्धिनी’ पुस्तक की विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत करते हुए पुस्तक में निहित भारतीय जीवन-दृष्टि तथा स्त्री-चिंतन के मूलभूत विचारों को स्पष्ट किया जिसके मुख्य बिन्दु निम्न है।
- वर्तमान समय में स्त्री-विमर्श पर पाश्चात्य विचारधाराओं का प्रभाव बढ़ा है, ऐसे में ‘संवर्धिनी’ पुस्तक भारतीय संस्कृति और मूल्यों के आधार पर स्त्री-चिंतन की एक सशक्त दिशा प्रदान करती है।
- पुस्तक स्पष्ट करती है कि भारतीय जीवन-दृष्टि ‘सहअस्तित्व’ पर आधारित है।
- स्त्री-पुरुष प्रतिद्वंदी नहीं, बल्कि सहचर हैं। शिव और शक्ति की एकता अर्धनारीश्वर रूप में इस दर्शन का प्रतिपादन करती है।
- भारतीय दृष्टि विविधता में समानता नहीं, बल्कि विविधता में एकत्व को खोजती है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति अपनी अनन्यता में पूर्ण है वे अलग नहीं, अद्वितीय हैं। यही कारण है कि यहाँ शास्त्रार्थ होते हैं, विवाद नहीं।
- स्वामी विवेकानंद के विचार उद्धृत करते हुए बताया गया “भारत में स्त्री को ‘माँ’ माना जाता है। विदेशों में ‘मदर’ कहने पर अपमान समझा जाता है, पर भारतीय संस्कार स्त्री को मातृत्व के स्वरूप में देखते हैं।”
- पुस्तक के अनुसार कुछ लोग यह तर्क देते है की स्त्री को रिश्तों मे क्यों बांधा जाए, जो की एक पाश्चात्य विचारधारा को दिखाता है।
- अमेरिकन नारीवाद की प्रमुख विदुषी बैटी फ़्रीडन ने अपनी पुस्तक The Second Stage में स्वीकार किया कि “स्त्री को मुक्त करने के प्रयास में परिवार और संस्कार समाप्त हो गए, परिणामस्वरूप स्त्री स्वतंत्र होकर भी अकेली पड़ गई।”
- डेविड ब्लेंकनहॉर्न की पुस्तक Fatherless America का उल्लेख करते हुए बताया गया कि अमेरिका में 78% परिवार केवल महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं, और 15 वर्ष से ऊपर के 46% लोग अपने पिता को जानते ही नहीं।
- भारतीय जीवन-दर्शन में स्त्री रक्षित नहीं, रक्षिका है। रक्षाबंधन इसका उदाहरण है—रक्षा-सूत्र उसी को बाँधा जाता है जिसे सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

द्वितीय सत्र
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता डॉ. सुभाष कौशिक ने “महिला विषयक भारतीय दृष्टिकोण” पर अत्यंत विचारोत्तेजक उद्बोधन प्रस्तुत किया। उन्होंने महिला लेखन और स्त्री-विमर्श की वर्तमान स्थिति पर तीन प्रमुख स्तरों में विश्लेषण किया उनके मार्गदर्शन मे निम्न बिन्दु प्रमुख रहे :
- आज के परिप्रेक्ष्य में महिला लेखन तीन स्तरीय विमर्शों में बंटा है।
- पहला विमर्श संपूर्ण समाज की दृष्टि से उत्पीड़न, संघर्ष और स्त्री-पुरुष समानता की मांग को रखता है।
- दूसरे विमर्श में महिला लेखन को पुरुष लेखन के समकक्ष रखकर पाठक‑पुरुष की दृष्टि से स्त्री‑पुरुष सम्बन्ध, प्रेम‑विवाह, परिवार, देह, मातृत्व आदि प्रश्नों पर विचार किया जाता है। इसी स्तर पर नारी‑उत्थान संगठनों का विमर्श भी जुड़ता है।
- तीसरे विमर्श में भारतीय स्त्री, विशेषकर हाशिये की स्त्रियों, दलित‑आदिवासी स्त्रियों और मुसलमान स्त्रियों के अनुभव, शोषण और संघर्ष को केंद्र में रखा जाता है।
- आधुनिक भारतीय स्त्री‑आन्दोलन, संविधान में दिए गए समान अधिकार, शिक्षा‑विस्तार, नौकरी और आर्थिक स्वावलम्बन ने स्त्री‑लेखन को नया तेवर दिया।
- भारतीय स्त्री‑विमर्श पश्चिमी नारीवाद से संवाद करता हुआ भी भारतीय समाज, संस्कृति और परम्परा की विशेषताओं को ध्यान में रखकर अपना रास्ता तय करता है।
- कुल मिलाकर, आज का महिला लेखन केवल निजी जीवन या घरेलू दुनिया तक सीमित न रहकर समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और वैश्विक परिप्रेक्ष्य तक फैल गया है।
कार्यक्रम के अंत में समाज एवं संस्कृति अध्ययन केंद्र के संयोजक डॉ. अमित झालानी ने ‘कृष्णांशी’ पुस्तक केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर परिसर के सह- निदेशक प्रो. बोध कुमार झा को भेंट की। कृष्णांशी पुस्तक प्राचीन भारत के इतिहास और अतिविकसित विज्ञान के बहुत से तथ्य जिन्हे मुख्यधारा के इतिहासकार नहीं मानते को साहित्यिक रूप मे प्रस्तुत करती है।


